क्रांतितीर्थ


स्वतंत्रता आंदोलन और स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर की हमारी 75 वर्षों यात्रा, सामान्य भारतीयों की मेहनत, नवाचार और उद्यम का प्रतिबिंब है। भूत हो या वर्तमान, देश हो या विदेश, ज्ञान और विज्ञान से समृद्ध भारत ने उत्तर पूर्व से लेकर काबुल कंधार तक, हिमालय से हिन्द महासागर तक और मंगल से लेकर चंद्रमा तक अपनी पताका फहराई है। हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं यानी आज़ादी की ऊर्जा का अमृत; स्वतंत्रता संग्राम के योद्धाओं की प्रेरणाओं का अमृत; नए विचारों और प्रतिज्ञाओं का अमृत; और आत्मानिर्भरता का अमृत।

इसी क्रम में क्रांतितीर्थ राष्ट्र जागरण का पर्व है। क्रांतितीर्थ से सम्बंधित 5 प्रश्नों को समझना हमारे लिए आवश्यक है। क्या, क्यों, कब, कहाँ और कैसे?

क्या है क्रांतितीर्थ? क्रांतितीर्थ एक अभियान है उन बलिदानियों को श्रद्धांजलि देने का जिन्होंने अनेक कष्ट सहे, अपना जीवन, अपना सर्वस्व देश की स्वतंत्रता के लिए, स्वराज की, स्वधर्म की भावना के लिए समर्पित कर दिया, फिर भी वे इतिहास के पृष्ठों में अनाम रह गए, अल्पज्ञात रह गए। इस बात को समझना भी आवश्यक है कि भारत में जहाँ जहाँ राजनीतिक और आर्थिक रूप से अंग्रेजों का नियंत्रण रहा वहां वहां हर भारतीय स्वाधीनता और स्व-धर्म के लिए संघर्ष कर रहा था। इस राष्ट्र की आत्मा ने कभी परतंत्रता को नहीं स्वीकारा। भारत के संतों, दार्शनिकों और ज्ञानियों का सर्वथा यह मत रहा है कि शरीर को बांधा जा सकता है पर आत्मा को नहीं। यह बात भारत और उपनिवेशी ताकतों के संदर्भ में भी खरी उतरती है। यूरोपीय शक्तियों को हर ओर से चुनौतियां मिलती रही। ऐसा एक भी दशक नहीं रहा जबकि विभिन्न यूरोपीय शक्तियों को संगठित और सशक्त प्रतिरोध का सामना न करना पड़ा हो। ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि भारत के वीरों ने हर दिशा और दशक में विदेशी ताकतों से लोहा लिया और अत्याचारी औपनिवेशिक शासन के दांत खट्टे किये। यही कारण है कि स्वतंत्रता संग्राम निरंतर रूप से चलता रहा और अंततः राजनितिक और प्रशासनिक रूप से अंग्रेजों को 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप से निकाल बाहर करने की प्रक्रिया संपन्न हुई। आज जब पूरा देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो ये अवसर हैं उन सभी नायकों को स्मरण करने का जो इतने वर्षों में छूट गए, इतिहास के पन्नों में कहीं दब गए।

क्रांतितीर्थ क्यों? आज तक इतिहास के अध्ययन में हर बार यह बात सामने आई कि भारत लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों का गुलाम रहा और परतंत्रता की बेड़ियों को हम 1947 में तोड़ सके। ये तथ्य आंशिक रूप से सत्य है।ये पूर्ण तब होगा जब हम भारत के हर कोने से मिली चुनौती को याद रखेंगे......उनकी बात करेंगे जिन्होंने सर झुकाया नहीं बल्कि कटाया था। जब हम जन सामान्य के बलिदान को नमन करेंगे। हम नेताओं को तो याद करते रहे हैं पर उनको स्मरण करना भूल गए जो जन सामान्य था जिसने जेल में बर्बर यातनायें झेली, अपने प्राणों का बलिदान दिया, परिवार को बिलखता छोड़ अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया क्यों ? क्योंकि भारत माता बेड़ियों में थी।

कहानी आरम्भ होती है 1498 से जब यूरोपीय शक्तियों का आगमन शुरू हुआ, साथ ही शुरू हुआ यूरोपीय शक्तियों और भारतीय शासकों के बीच संघर्ष। हर एक कालखंड में अपनी मातृ भूमि की संप्रभुता को अक्षुण्ण रखने की जागरूकता पूर्णतः प्रबल रही। जो बदला वह था शत्रु , उनकी रणनीति और उनके द्वारा अपनायी कपट-विद्या। यूरोपियों के आने से बहुत पहले, भारत के राज्यों ने मुगल आक्रमणों से अपनी भूमि और क्षेत्र को बचाने और सुरक्षित रखने के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया । जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए मृत्यु को चुना, ऐसे महान योद्धाओं के सर्वोच्च बलिदान को कोई नहीं भूल सकता।

क्रांतितीर्थ इस महान मिटटी की पूजा है जिसने हर कोने से योद्धा पैदा किये। हम सबने इतिहास पढ़ा है। क्रांतितीर्थ उस अधूरे इतिहास का पुनरीक्षण है जिसमे उन वीरों का नाम ही नहीं है जिनका नाम सुन कर आक्रमणकारी, उपनिवेशी ताक़तें थर-थर कांपती थीं। उत्तर, दक्षिण ,पूरब पश्चिम एक दिशा भी ऐसी नहीं थी जहाँ से जन संग्राम की गर्जना न हुई हो

1504 में पुर्तगालियों का पहले महत्वपूर्ण संग्राम कालीकट के ज़मोरिन्स के साथ हुआ। ज़मोरिन की सेना और नौसेना ने पुर्तगालियों को मुहतोड़ जवाब दिया। फिर हुआ 1509 में दीव का संग्राम, आज की मुंबई से 250 कि.मी.की दूरी पर उत्तर-पश्चिमी भारतीय तट के पास, पुर्तगालियो को इसी धरती के वीरों ने नाकों चने चबा दिए । भारत में मेवाड़, राजपुताना हमेशा अपनी वीरता और बलिदान के लिए जाना जाता रहा । राणा और मेवाड़ के योद्धाओं ने आक्रमणकारियों को हमारी मातृभूमि से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महाराणा सांगा ने 1527 में खानुआ की लड़ाई बाबर के साथ लड़ी और महाराणा प्रताप ने 1576 में हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध में अकबर के साथ संग्राम किया । 40000 से अधिक लोगों ने इस अनिर्णायक लड़ाई में अपनी जान गँवायी। राणा ने जंगल में अपने ठिकानों से युद्ध जारी रखा । यह लड़ाई पारंपरिक तरीकों से लड़ी गई थी। मेवाड़ का राजपूत राज्य सही मायने में भारतीय गौरव का प्रतीक है जो विदेशी प्रभुसत्ताओं के समक्ष कभी नहीं झुका।

क्रांतितीर्थ नमन करता है उल्लाल रानी की अब्बाका को जिसकी ताकत और प्रतिरोध से पुर्तगालियों को हमेशा खतरा बना रहता ।1553 में, पुर्तगालियों ने एडमिरल डॉन अल्वारो डी सिलवीरा के नेतृत्व में उल्लाल पर हमला किया, लेकिन उसे भारी हार का सामना करना पड़ा ।

याद करिये 1558 की पुर्तगालियों और विजय नगर की लड़ाई जिसमें विजय नगर साम्राज्य की जीत हुई। रामा राया ने उन्हें ऐसे धूल चटाई कि पुर्तगाली दुःसाहस, तटीय क्षेत्रों के मनमाने हमले और लूटपाट प्रभावी रूप से समाप्त हो गए ।

1721 का एटिंगल विद्रोह, मालाबार, कोचीन और त्रावणकोर में इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पहला संगठित विद्रोह था। डच नौसैनिकों का एक दल जुलाई 1741के अंत में कन्याकुमारी के पास एक तटीय शहर कोलाचेल पर उतरा और उत्तर में मार्तंड वर्मा की राजधानी पद्मनाभपुरम पर कब्जा करने का प्रयास किया। इन्होने डचों को बुरी तरह से पराजित किया ।

कान्होजी आंग्रे, ने पश्चिमी हिंद महासागर में यूरोपीय और मुगलों के खिलाफ कई सफल नौसैनिक अभियान और लड़ाई का नेतृत्व किया। 1702 से कान्होजी अंगरे के नेतृत्व में मराठों और ब्रिटिश के बीच लगातार नौसेना संघर्ष और मराठा नौसेना की बढ़ती शक्ति का प्रमाण है । मराठों ने बेहद बहादुरी से पानीपत की तीसरी लड़ाई अहमद शाह दुर्रानी, रोहिल्ला के नवाब और अवध के नवाब के खिलाफ लड़ी।

विभिन्न आदिवासियों का संघर्ष, किसान संघर्ष, संन्यासी संघर्ष निरंतर उपनिवेशवादियों के राजनितिक प्रभुत्व को चुनौती देते रहे ।

पर अगर साहस अदम्य था तो अंग्रेज़ों द्वारा दमन भी अभूतपूर्व रहा। इन वीर गाथाओं के साथ हमें अंग्रेज़ों की क्रूर नीतियों को भी स्मरण रखना होगा।

1757 का प्लासी का युद्ध, 1764 की बक्सर की लड़ाई , बंगाल, बिहार और उड़ीसा में कंपनी की शक्ति का एकीकरण, 1793 के बाद कंपनी का बंगाल-बिहार क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण , एंग्लो-मैसूर युद्ध और एंग्लो-मराठा युद्धों के बाद कंपनी का भारत के बड़े क्षेत्रों के नियंत्रण तो हुआ पर ऐसा एक भी समय न था जब देश की मिटटी से क्रांति का बिगुल न बजा हो। अंग्रेज़ों छल और कपट विद्या से भारत को लूटने का, भारतीय राज्यों के राज्य-हरण का प्रयास चलता ही रहा।

फिर हुआ 1857 में स्वतंत्रता संग्राम का पहला महायद्ध। इस माटी के बच्चे- बच्चे ने अपने प्राणों की आहुति दी। भारत के इस पहले स्वतंत्रता संग्राम में हर क्षेत्र, हर वर्ग, हर धर्म-जाति के भारतीयों की सहभागिता रही। यह संग्राम गवाह है उस देश प्रेम का जिसमें साधारण व्यक्तियों ने अपने अधिनायकों के नेतृत्व में असाधारण चरित्र का परिचय दिया और अंग्रेजी शासन को हिला कर रख दिया।10 मई 1857 के सैनिक विद्रोह से बहुत पहले इस संग्राम की योजना और तैयारी हो रही थी, जो अंततोगत्वा प्रशासनिक और नैतिक रूप से अंग्रेजों की बहुत बड़ी पराजय का स्वरूप रहा। इस समर का परिणाम यह था कि ईस्ट इंडिया कंपनी को निकाल बाहर कर दिया गया और ब्रिटेन की महारानी ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। कहते हैं कि 1858 में एक समय ऐसा था कि अंग्रेज़ों ने उत्तर भारत में हज़ारों निर्दोष व्यक्तियों को पेड़ों से फाँसी पर लटका दिया क्यों?? क्योंकि उन्होंने अपने घर से बलिदानियों को पैदा किया था।

अंग्रेज़ों की क्रूरता की कहानी यहाँ समाप्त नहीं हुई । इस देश को बाँटने, लूटने और तोड़ने का उनका षड्यंत्र चलता ही रहा। जुलाई 1905 में बंगाल का सांप्रदायिक विभाजन – ‘बंगभंग’ कर दिया गया । लेकिन कर्जन और उसकी बंगाल विभाजन की योजना ने पूरे भारत में ब्रिटिश विरोधी जनजागरण का संचार कर दिया। बंदेमातरम और स्वदेशी जैसे देशव्यापी आन्दोलनों सहित समाचार-पत्रों और क्रांतिकारी गतिविधियों ने ब्रिटिश सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया । आखिरकार 1911 में बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया। साल 1907-1914 के दौरान सार्वजानिक सभाओं, समाचार-पत्रों, और संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने हरसंभव दमनकारी प्रयास किये लेकिन इसी दौर में देशभर में क्रांतिकारी गतिविधियों की भी भरमार रही। उन बलिदानियों की वंदना है क्रांतितीर्थ।

समूचे देश ने इस दौरान सत्याग्रहों, अंग्रेज़ों द्वारा किये नरसंहारों और क्रांतिकारियों का बलिदान देखा। भारत छोड़ो आन्दोलन में हर भारतीय ने अपनी भागीदारी दी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आह्वान पर हर भारतीय अपना खून देने को तत्पर था । ये लोग हमारे आपके जैसे साधारण लोग थे। परिवार, सम्बन्धी नाते रिश्तों को त्याग के देश की स्वतंत्रता और अखंडता के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया। इन्होने कभी सम्मान की अपेक्षा नहीं की। आज क्रांतितीर्थ के माध्यम से हम सब ऐसे वीरों को नमन करने का प्रयास कर रहे हैं जिनका नाम इतिहास की पुस्तकों में नहीं आया।

ये मिथक है कि भारत को स्वतंत्रता बिना खडग बिना ढाल मिली। इस स्वंत्रता में बलिदानियों का खून मिला है, सुहागनों के माथे का सिन्दूर है, माँ-पिता के आंखों के आंसूं हैं, बहनों के राखी धागे हैं, बालकों के सर का साया है......क्रांतितीर्थ ऐसे सभी पूजनीय भारतीयों को नमन करता है जो अनाम रह गए, अल्पज्ञात रह गए।

क्रांतितीर्थ कब और कहाँ? बलिदानियों के प्रति कृतज्ञता की भावना हमारे ह्रदय में हमेशा रही। हमने आज़ादी की रजत जयंती मनाई, स्वर्ण जयंती मनाई गई, आज़ादी के साठ वर्ष पूर्ण होने पर भी पूरे देश में अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए, हमने उन्हें पग-पग पर स्मरण किया। आज जब पूरा देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो ये अवसर हैं उन सभी नायकों को स्मरण करने का जो इतने वर्षों में छूट गए, इतिहास के पन्नों में कहीं दब गए। हर दिन क्रांतितीर्थ है । इन राष्ट्रवीरों ने किसी त्योहार की चिंता न कर के बहरी अंग्रेजी सरकार के कान के पर्दे सच में फाड़ दिए । कोई भी बलिदानी 19-35 वर्ष से अधिक का न था। देश के हर कोने में बलिदानियों ने अपने प्राण समर्पित किये इस देश को.....देश के हर कोने में क्रांतितीर्थ इन्हे नमन करेगा।

क्रांतितीर्थ कैसे? क्रांतितीर्थ एक शृंखला मात्र नहीं बल्कि एक अभियान है।

क्रांतितीर्थ इस क्रांतिधरा के उन सभी अनाम अज्ञात बलिदानियों को कृतज्ञ भारतवासियों की ओर से वंदन की श्रंखला है। सेंटर फॉर एडवांसड रिसर्च ऑन डेवलपमेंट एंड चेंज, विकास और परिवर्तन के अध्ययन में कई शोध एवं प्रज्ञात्मक कार्यक्रम करता आया है। स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर हमारी यात्रा का अध्ययन आज हम सभी के लिए सर्वोपरि है। अलगाव, अविश्वास, विषमता एवं विद्वेष को हटा के राष्ट्र की एकात्मता, अखंडता, सुरक्षा, सुव्यवस्था, समृद्धि तथा शांति की ओर अग्रसर होना सही मायने में बलिदानियों को श्रद्धांजलि होगी। क्रांतितीर्थ की इस भावना को प्रसारित करने का यह एक प्रयास है।

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